वो रोज ही सुबह की चाय बालकनी में घूमते हुए पीती थी। उसे ताज़ी हवा में घूमते हुए चाय पीना बहुत ही पसंद था। रोज की तरह आज भी चाय का एक बड़ा मग लिए हुए, बालकनी में आ खड़ी होती है। मौसम बहुत ही खुशगवार था, ठंडी- ठंडी हवा चल रही थी, आसमाँ में काले बादल छाए हुए थे; पर बारिश के आसार नज़र नहीं आ रहे थे। वो टहलते हुए चाय पीने लगती है।
लेकिन आज दिल की कैफ़ियत कुछ अजीब सी हो रही थी। बहुत दिनों के बाद, आज फिर वही ख़्वाब आया था। 'एक नौजवान लड़का बहुत बुरी तरह ज़ख़्मी है। और वो उसका सर अपने गोद में लिए हुए जारो- कतार रो रही है।'
तभी उसकी नज़र, घर के सामने वाली सड़क के दूसरी तरफ पड़ती है। वहाँ पर एक बहुत पुराना नीम का पेड़ था। उसके नीचे एक खू- बरु नौजवान लड़का पड़ा हुआ था। आँखें बंद थीं, लेकिन उसके होंठ हिल रहे थे। शायद कुछ बड़बड़ा रहा था। सर के बाल बढ़े हुए थे। कपड़े काफ़ी गंदे पहन रखे थे। लग रहा था महीनों से नहाया नहीं है। उसने डायरी जैसा हाथ में कुछ ले रखा था। लेकिन हुलये से वो किसी अच्छे परिवार का लग रहा था। उसे बड़ी हैरानी होती है। चूंकि सुबह के वक़्त आवा- जाही ज़रा कम रहती है। इस लिए वो अच्छे से जाएजा ले पा रही थी।
उस गंदे से, मैले- कुचैले लड़के को देख कर; उसके दिल की कैफ़ियत अजीब हो जाती है। दिल एक अलग ही अंदाज़ में धड़क उठता है। वो समझ नहीं पाती है, अपनी कैफ़ियत।
चाय ख़्तम कर नीचे चली जाती है। अब्बू भी मस्ज़िद से आ चुके थे। वो अम्मी- अब्बू को चाय और दे कर अपने कमरे में आ जाती है। अपनी किताबें निकालकर पढ़ने बैठ जाती है। लेकिन आज उसका पढ़ने में मन नहीं लग रहा था। उसका ध्यान बार- बार उस लड़के की तरफ जा रहा था। सोच रही थी, वो लड़का तो देखने से किसी अच्छी फैमिली का लग रहा है; फिर उसकी ऐसी हालत क्यों हुई होगी। उसके ख़्याल को बार- बार ज़हन से झटकने की कोशिश करती है; लेकिन कामयाब नहीं हो पाती।
थक कर, डायरी लिखने बैठ जाती है। उसे रोज डायरी लिखने की आदत थी।
आख़िर वो उस लड़के को भूल कर, डायरी लिखने में डूब जाती है। वो ऐसी ही थी। डायरी लिखने बैठती थी तो वक़्त का पता ही नहीं चलता था।
डायरी लिखते हुए कब 9 बज जाते हैं, पता ही नहीं चलता।
होश तो तब आता है, जब मोबाइल की रिंग बजती है। देखा तो, उसकी दोस्त सबिहा की कॉल थी। उसे याद आता है, आज यूनिवर्सिटी भी जाना है; फॉर्म भरने का आज लास्ट डेट है।
वो जल्दी से किचन में आती है। नाश्ता तैयार कर अम्मी- अब्बू को देती है। और ख़ुद तैयार होने लगती है।
तब तक में उसकी दोस्त सबिहा भी आ जाती है।
"मोटी, कॉल कर रही थी तो उठा क्यों न रही थी? "
"यार! बस लेट हो रहा था इस लिए।"
तभी अब्बू आवाज़ लगाते हैं।
"बेटा, कुछ खाने को बचा है, अगर बचा नहीं है तो बना दो; ज़रा उस पागल लड़के को दे आऊँ। बेचारा पता नहीं, कब से भूखा होगा।"
उसे देर हो रही थी तो अपना लंच बॉक्स ही निकाल कर दे दिया।
और सबिहा के साथ जल्दी से निकल जाती है।
रास्ते में, दोनों में नोक- झोंक चलता रहता है। बातों ही बातों में वो सदफ से कहती है, "आज मैंने, फिर वही ख़्वाब देखा... और ये ख़्वाब पिछले छः महीने से आ रहे हैं।"
"तूने अम्मी को बताया?"
नहीं सबिहा, अभी तक तो नहीं बताया। और बताऊँ भी क्या कि मैं ऐसा- वैसा ख़्वाब देखती हूँ।"
"अच्छा! अम्मी को नहीं बताएगी तो न बता। लेकिन इस ख़्वाब से मुझे कुछ- कुछ अंदाजा हो रहा है।"
कह कर सबिहा मा'अनी- खेज़ अंदाज में मुस्कुराने लगती है।
क्रमशः